राजनीतिक विश्लेषण- उमेश रेवलिया
खरगोन। जीवन में दान का खास महत्व है। लोकतंत्र के महापर्व में हमारे अपने मत का दान करने का स्वर्णिम अवसर फिर आया। कोई जीतेगा और किसी का हारना तय है। अब हम बात करें तो कांग्रेस के पास चेहरे तो बेहतर हैं लेकिन मुद्दे नदारद हैं। खंडवा के प्रत्याशी नरेंद्र पटेल की जेब नहीं और खरगोन उम्मीदवार पोरलाल खरते की जेब खाली। कार्यकर्ता है मायूस और अरमानों की है थाली खाली। ऐसे में कैसे बजेगी उत्साह की थाली।
विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस बेहतर परफॉर्मेंस करती है लेकिन जब लोकसभा चुनाव आते हैं तो जैसे उत्साह कहीं दुबककर बैठ जाता है। यह सच है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े लोकसभा चुनाव के पर्व में सभी को अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहिए लेकिन जब कार्यकर्ताओं में ही उत्साह नहीं रहता तो माहौल कैसे उत्साहित हो सकता है। एक समय था जब कांग्रेस में चुनाव आने के 6 महीने पहले ही कार्यकर्ता चुनावी अभियान में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए मोहल्ले के दलान से लेकर शहर की चौपाटी तक चर्चारत रहते थे कि किसे मिलेगा टिकट और कौन सा चेहरा जनता के सामने लेकर जाने से फटाफट पार्टी के पक्ष में वोट करेंगे। अब माहौल बदल गया है आधुनिक दौर के चलते सोशल मीडिया ने गांव के दलान और चौपाटी से ये सब छीन लिया है। लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय लेवल और प्रदेश लेवल के मुद्दों की छाया रहती है लेकिन लोकल लेवल पर कैंडिडेट की व्यक्तिगत छवि भी मायने रखती है। आप कितने व्यवहार कुशल और सफल संचालक है इस बात पर निर्भर करता है और यही वोट खींचने एक तरीका भी है। लेकिन यह भी सच है, उत्साह की बिजली का लगातार संचार होना, दिए गए अर्थिंग से कनेक्शन पर भी डिपेंड करता है। कहते हैं जहां अर्थिंग व्यवस्था नहीं होती वहां बिजली का तालमेल बिगड़ जाता है और फ्यूज उड़ जाता है। खरगोन लोकसभा चुनाव में भी अर्थिग ना होने से फ्यूज ही उड़ गया है। अब तो आप समझ गए होंगे कि कांग्रेस का घटता वर्चस्व जल्दबाजी में तय किए गए मुद्दे और उम्मीदवार भी हो सकते हैं। खंडवा के प्रत्याशी नरेंद्र पटेल के निराशाजनक प्रदर्शन के कारण कई बड़े नेता वर्षों पुरानी अपनी पार्टी को टाटा बाय-बाय कहकर भाजपा के साथ हो लिए है। बरसों से जिस पार्टी के आधार स्तंभ बने रहे, दरी बिछाने से लेकर पार्टी का झंडा उठाने तक हमेशा सच्चे सच्चाई सिपाही बने रहने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं के इस तरह पार्टी को एनवक्त पर ना कह देना। कहीं ना कहीं हाईकमान लेवल पर और अदूरदर्शिता, मिसकम्युनिकेशन और प्रत्याशी चयन की जल्दबाजी भी कह सकते हैं। पार्टी में अनुशासनहीनता, गुटबाजी का खामियाजा आम कांग्रेस कार्यकर्ता भुगत रहा है। यहां भाजपा के प्रत्याशी ज्ञानेश्वर पाटिल उपचुनाव में जीतने वाले सांसद जरूर हैं लेकिन उनकी सक्रियता पर भी कहीं ना कहीं प्रश्न चिन्ह खड़े होते हैं। कई गांव ऐसे भी हैं जहां सांसद ने 5 साल में एक बार झांककर भी नहीं देखा, कि उस गांव के लोगों के क्या हाल है। यह भी सच है कि नरेंद्र मोदी के नाम के सहारे लोकसभा की नैया तो पार हो जाएगी लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो चाहते हैं क्या वह बैकअप मिल पाएगा? यह भी यक्ष प्रश्न ही है। अगर हम खरगोन लोकसभा की बात करें तो कांग्रेस प्रत्याशी पोरलाल खरते सभा को संबोधित करने के मामले में तो अच्छे वक्ता हैं लेकिन पार्टी और कार्यकर्ताओं को साधने में कुशल राजनीतिक नहीं हैं। कहीं ना कहीं विभाग के अधिकारी रहे व्यक्ति में जनता से सीधे जुड़ाव का अभाव भी है। गुटों में बंटी कांग्रेस के बड़े नेता बैठक और सभा में तो नजर आए लेकिन जनसंपर्क के दौरान धूप में प्रचार के लिए प्रत्याशी के साथ नजर नहीं आए। 2018 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने खरगोन लोकसभा क्षेत्र में बेहतर परफॉर्मेंस दिया था। इसके चलते लगभग 6 सीटें कांग्रेस की झोली में पड़ी थी। 5 कांग्रेस और एक कांग्रेस समर्थक निर्दलीय प्रत्याशी केदार डावर ने दिलाई। 2023 में कांग्रेस को तीन सीट गंवाना पड़ी। खरगोन-बड़वानी जिले की आठ विधानसभा सीटों में से पांच कांग्रेस के पास है और तीन में बीजेपी जीती है। इसके बावजूद पूर्व मंत्री डॉ विजयलक्ष्मी साधौ, पूर्व मंत्री बाला बच्चन, पूर्व मंत्री सचिन यादव और अरुण यादव जैसे कद्दावर नेता और पूर्व पीसीसी चीफ बैठक में दिखे लेकिन प्रचार के दौरान नहीं। सूत्र बताते हैं बड़वानी जिले के एक विधायक कहते हैं कि खरते की कार्यप्रणाली से कार्यकर्ता खासे नाराज हैं। उनका मानना है कार्यकर्ताओं और प्रचार सामग्री में खर्चे तो करने ही पड़ते है। जहां 70 हजार की जरूरत, वहां 10 हजार दिए। हमारे प्रत्याशी की तो जेब ही खाली है। सेगांव में हुई राहुल गांधी की सभा भगवानपुरा, राजपुर और सेंधवा में कुछ प्रभाव जरुर डाल सकती है लेकिन यह वोट में तब्दील होगी यह कहना अभी मुश्किल है। इसके विपरीत खरगोन में एक दिन बाद नवग्रह मेला ग्राउंड में हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा में आई भीड़ और जुनून, मोदी-मोदी की गूंज, राहुल की सभा को फीका कर गई। दिग्विजय सिंह ने बड़वानी में कुछ लोगों से संपर्क कर खरते को सपोर्ट करने की बात कही है लेकिन बूथ लेवल पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की अपेक्षा और नाराजगी चरम पर है और इसका खामियाजा समझौता कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है। शहरी क्षेत्र राजपुर, अंजड़, महेश्वर, बड़वानी में कांग्रेस प्रत्याशी पहुंचे ही नहीं। यानी कह सकते हैं शहरों के मतदाता से वोट की गुहार भी नहीं लगा पाए। अब गांव का मतदाता कितना दम भरता है ये तो 13 मई की वोटिंग से पता चलेगा। खरते के लिए एक पॉजिटिव पॉइंट है कि जयस का खुलकर साथ मिला। अब अगर हम भाजपा की बात करें तो बड़वानी में जरूर भाजपाइयों में तालमेल नहीं है लेकिन खरगोन में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा। भाजपा प्रत्याशी के साथ नरेंद्र मोदी, राम मंदिर 370 जैसे मुद्दे हैं, वहीं कांग्रेस को सैम पित्रोदा के बयान पर सफाई देना पड़ रही है। कांग्रेस महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे नहीं भुना पाई। खरगोन के चुनावी इतिहास की बात करें तो मध्य भारत के आम चुनाव के दौरान 1952 में खरगोन लोकसभा सीट अस्तित्व में आई थी। 17 बार लोकसभा चुनाव हुए हैं। इनमें से 9 बार भाजपा प्रत्याशी, दो जनसंघ और छह बार कांग्रेस के प्रत्याशी विजय रहे। एक बार उपचुनाव हुआ। उपचुनाव में कांग्रेस पूर्व पीसीसी चीफ अरुण यादव 2006 में विजय रहे थे। सर्वाधिक बार भाजपा के प्रत्याशी रामेश्वर पाटीदार विजयी रहे। 1999 के बाद से अब तक भाजपा सतत जीतते आई है। खरगोन की सीट बीजेपी का गढ़ मानी जाती है। जातिगत समीकरण की बात करें तो एसटी के 40%, ओबीसी 30, एससी के 5 और अल्पसंख्यक 5, सामान्य के 20% वोटर हैं। लोकसभा में कुल वोटर 20 लाख 39 हजार हैं। पुरुष 10 लाख 21 हजार, महिला वोटर 10 लाख 19 हजार हैं।