राजनीतिक विश्लेषण- उमेश रेवलिया, खरगोन
खरगोन। खंडवा-खरगोन लोकसभा सीट को लेकर कांग्रेस कार्यकर्ताओं में और जनप्रतिनिधियों में उत्साह जाने कहां खो गया। तलाशे भी तो, कैसे और कहां? प्रचार के लिए शारीरिक क्षमता के साथ आर्थिक ऊर्जा को बनाये रखने के लिए धन (ईंधन) भी जरूरी है, विडम्बना ये है कि यहां बिल्कुल उल्टा है कांग्रेस प्रत्याशी की तो जेब ही नदारद है। अब कांग्रेस के राजनीतिक धुरंधर अरुण भाई की साख ही तांक पर है। खंडवा में तो राजनीतिक गंगा ही उल्टी बह रही है। गुरु से नाराज लोगों के सामने गुमनाम चेले से दो-चार होना खल रहा। कांग्रेसियों का दर्द ये है कि टीस ऐसी, दिखाए किसे और मन की पीड़ा सुनाए किसे।
हम बात कर रहे दादाजी धूनी वाले की पावन धरा और दुनियाभर के कानों में गीत गंगा बहाने किशोर दा की नगरी खंडवा-खरगोन लोकसभा की। यहां के इतिहास पर नजर डाले तो खंडवा लोकसभा सीट भाजपा का गढ़ मानी जाती है। खंडवा संसदीय क्षेत्र में तीन जिलों की आठ विधानसभाएं आती हैं। खंडवा, मांधाता, पंधाना, बुरहानपुर, नेपानगर, भीकनगांव, बड़वाह, बागली शामिल हैं। इस सीट में 20 लाख 90 हजार 386 मतदाता हैं।
गांधी हाल में बर्थडे मना कर भीड़ इकट्ठा कर रहे कांग्रेसी…
शुरुआत के जिस दौर में कांग्रेस के लिए खंडवा सीट कांग्रेस का गढ़ रही उसी कांग्रेस की वर्तमान में हालत पतली है। हालत इतनी खराब है कि गांधी हाल में कुछ कार्यकर्ता बर्थडे मनाकर हल्की पतली भीड़ इकट्ठा कर रहे हैं। खंडवा, पंधाना और मान्धाता में तो कांग्रेस कार्यालय तक नहीं खुले है। बुरहानपुर के तीनों विधानसभाओं में भी कार्यालय के अते-पते नहीं है। प्रचार करने के लिए जिन जिम्मेदारों को 50 से 100 गांव दिए हैं, उन्हें भी कोई पूछ नहीं रहा। कांग्रेसियों का कहना है विधानसभाओ के प्रभारी ही नियुक्त नहीं हुए हैं। प्रचार के लिए चंद गाड़ी घोड़े हैं लेकिन उन्हें दौड़ने के लिए डीजल तक नहीं भरा पा रहे हैं। कुल मिलाकर कांग्रेस का चुनाव दिशाहीन हो रहा। कांग्रेसियों का कहना है इससे तो पार्षद का चुनाव भी अच्छा होता है। चार दिन बचे हैं, स्टार प्रचारक भी नहीं बुलाये। बनैर पोस्टर ही नदारद है।
निराशा के घोर अंधकार में चली गई कांग्रेस…
लम्बी प्रतीक्षा के बाद खण्डवा संसदीय क्षेत्र को कांग्रेस का प्रत्याशी मिला लेकिन नरेंद्र पटेल के रूप में ऐसा नाम सामने आया जो कांग्रेस कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करने की बजाय निराशा के घोर अंधकार की ओर ले गए। कहते हैं देर आए दुरुस्त आए लेकिन यहां तो विधानसभा में हारे हुए प्रत्याशी को लेकर आए। बेशक कांग्रेस के बड़े नेता और पूर्व पीसीसी चीफ अरुण यादव ये अनोखा नाम लाये। भाजपा के लिए ये नाम वाकओवर जैसा हो गया। बगैर किसी मेहनत के भाजपा की झोली में ये सीट जाती हुई दिख रही है। नरेंद्र पटेल की अगर हम बात करें तो ये एक कैसा नाम है जिन्हें बड़वाह-सनावद क्षेत्र में ही लोग ठीक से नहीं जानते। बड़वाह के भाजपा उम्मीदवार सचिन बिरला ने पटेल को 5 हजार से अधिक वोटों से पटखनी दी थी, अभी पटेल, हार की कड़वाहट से मुंह ठीक भी नहीं कर पाए थे और दूसरी भीषण जिम्मेदारी उनके बेहद कमजोर कंधों पर डाल दी। खंडवा लोकसभा सीट में खंडवा सहित खरगोन, देवास और बुरहानपुर की सीटें आती हैं। नरेन्द्र पटेल का खुद का कोई राजनीतिक जनाधार नहीं है। तकदीर से खरगोन सांसद रहे ताराचंद पटेल के भतीजे हैं, बस यही उनकी बड़ी उपलब्धि है। 10वीं तक शिक्षित नरेन्द पटेल के खाते में कोई बड़ी सामाजिक या राजनैतिक उपलब्धि भी नहीं है।
केवल भीकनगांव कांग्रेस के पास-
खण्डवा संसदीय क्षेत्र की हम बात करें तो आठ विधानसभा क्षेत्रों में इस समय सिर्फ एक भीकनगांव में कांग्रेस की विधायक झूमा सोलंकी हैं बाकी सभी सात विधानसभाओ में भाजपा काबिज़ है। भाजपा ने ज्ञानेश्वर पाटिल को ही अपना प्रत्याशी बनाया है जो दो वर्ष पूर्व हुए लोकसभा उपचुनाव में निर्वाचित हुए हैं। इसके पहले यहां से नंदकुमार सिंह चौहान छह बार सांसद रहे हैं। कोविड के दौरान उनके आकस्मिक निधन से ये सीट रिक्त हुई थी।
…अंगद का पैर हो गई भाजपा
निमाड़ अंचल में खंडवा सीट का महत्वपूर्ण स्थान है। आजादी के बाद यहां राजनीति को कांग्रेस रास आई। कहते हैं इमरजेंसी के बाद जनसंघ ने कांग्रेस के गढ़ में सेंध लगाने का काम किया। राम जन्मभूमि मुद्दे ने खंडवा में भाजपा को पैर जमाने का अवसर दिया। नतीजा ये रहा कि 1989 में कांग्रेस के बड़े नेता ठा. शिवकुमार सिंह बागी हो गए। उनके निर्दलीय चुनाव लड़ने से कांग्रेस के वोट बंट गए। इसका लाभ भाजपा प्रत्याशी अमृतलाल तारवाला को मिला और खंडवा में पहली बार कमल खिला। उसके बाद भाजपा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा सात बार यहां भाजपा के उम्मीदवारों को सफलता मिली। भाजपा के कद्दावर नेता नंदकुमार सिंह चौहान, चर्चित नाम नंदू भैया को छह बार चुनाव में जीत मिली। उनकी लगातार जीत से भाजपा अंगद का पैर हो गई। वर्ष 2021 में सबके प्यारे नंदू भैया के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने यहां अपना कब्जा बरकरार रखा।
दिग्गजों ने संभाली है खंडवा कमान…
खंडवा सीट की हम बात करें तो यहां पर भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे, नंदकुमार सिंह चौहान और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे अरुण यादव प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस पर कुशाभाऊ ठाकरे दो बार, अरुण यादव तीन बार और नंदकुमार सिंह चौहान सात बार किस्मत आजमा चुके हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो नंदकुमार सिंह चौहान और अरुण यादव के बीच मुकाबला हुआ था।
सिंधिया के सामने लड़ने की थी मंशा…
खंडवा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार का टिकट घोषित होने से पहले सर्वाधिक चर्चित नाम और पीसीसी अध्यक्ष अरुण यादव का ही था लेकिन अरुण यादव के खंडवा की बजाय गुना संसदीय सीट से कद्दावर नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने चुनाव लड़ना चाहते थे उन्होंने यह बात खरगोन में मीडिया के समक्ष भी कही थी। अरुण भाई को टिकट गुना से नहीं मिला तो उन्होंने अपने चेले नरेंद्र पटेल का नाम आगे कर दिया। कांग्रेसी सूत्रों का कहना है कि खंडवा क्षेत्र में पहले से ही खेमों में बंटी कांग्रेस के कई दिग्गज नेता और कार्यकर्ता अरुण भाई से नाराज हैं, ऐसे में पटेल का नाम आने से करेला और ऊपर से नीम चढ़ा वाला मामला हो गया।
ये है खंडवा में जातिगत समीकरण…
जातिगत समीकरण देखें तो इस सीट पर राजपूतों का प्रभाव रहा है। सबसे ज्यादा सांसद इसी वर्ग से बने है। ठाकुर शिवकुमार सिंह, ठाकुर महेन्द्र कुमार सिंह, नंदकुमार सिंह चौहान का वर्चस्व रहा है। इसके अलावा ब्राहण वर्ग से यहां पंडित बाबूलाल तिवारी, गंगाचरण दीक्षित, पंडित कालीचरण सकरगाए रहे हैं। कांग्रेस के प्रत्याशी नरेन्द पटेल गुर्जर समाज से आते हैं, उनका भी अपना प्रभाव है लेकिन वहीं भाजपा के ज्ञानेश्वर पाटिल भी ओबीसी से ही आते हैं। इस तरह कोई जातिगत समीकरणों का बड़ा लाभ कांग्रेस उठा पाए ये भी नहीं दिखता। सांसद रहे पाटिल की अपनी कोई खास उपलब्धि नहीं रही है। खंडवा के मतदाताओ का मानना है, पाटिल सक्रिय सांसद नहीं हैं। इन हालात में कांग्रेस कितनी मजबूती से खंडवा में खड़ी रहेगी और क्या बीच मझधार में गोते खाते हुए नरेंद्र पटेल की नाव पार लग पाएगी या फिर ज्ञानेश्वर पाटिल मोदी के नाम की नैया पर सवार होकर चुनाव रूपी समुद्र को पार कर जाएंगे। ये तो 4 जून को ही पता चलेगा।